Saturday, July 12, 2008
राजेश जोशी जी की कविता : रूको बच्चों रूको
।। रूको बच्चों ।।
रूको बच्चों रूको
सड़क पार करने से पहले रुको
तेज रफ्तार से जाती इन गाडियों को गुजर जाने दो
वो जो सर्र से जाती सफेद कार में गया
उस अफसर को कहीं पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है
वो बारह या कभी कभी तो इसके बाद भी पहुंचता है अपने विभाग में
दिन महीने या कभी कभी तो बरसों लग जाते हैं
उसकी टेबिल पर रखी जरुरी फाइल को खिसकने में
रूको बच्चों
उस न्यायाधीश की कार को निकल जाने दो
कौन पूछ सकता है उससे कि तुम जो चलते हो इतनी तेज कार में
कितने मुकदमे लंबित हैं तुम्हारी अदालत में कितने साल से
कहने को कहा जाता है कि न्याय में देरी न्याय की अवहेलना है
लेकिन नारा लगाने या सेमीनारों में बोलने के लिए होते हैं ऐसे वाक्य
कई बार तो पेशी दर पेशी चक्कर पर चक्कर काटते
ऊपर की अदालत तक पहुच जाता है आदमी
और नहीं हो पाता इनकी अदालत का फैसला
रूको बच्चों सडक पार करने से पहले रुको
उस पुलिस अफसर की बात तो बिल्कुल मत करो
वो पैदल चले या कार में
तेज चाल से चलना उसके प्रशिक्षण का हिस्सा है
यह और बात है कि जहां घटना घटती है
वहां पहूंचता है वो सबसे बाद में
रूको बच्चों रुको
साइरन बजाती इस गाडी के पीछे पीछे
बहुत तेज गती से आ रही होगी किसी मंत्री की कार
नहीं नहीं उसे कहीं पहुंचने की कोई जल्दी नहीं
उसे तो अपनी तोंद के साथ कुर्सी से उठने में लग जाते हैं कई मिनट
उसकी गाडी तो एक भय में भागी जाती है इतनी तेज
सुरक्षा को एक अंधी रफ्तार की दरकार है
रूको बच्चों
इन्हें गुजर जाने दो
इन्हें जल्दी जाना है
क्योंकि इन्हें कहीं पहुंचना है
Sunday, June 8, 2008
काठ का घोड़ा लाने गए पिता नहीं आये... बद्रीनारायण की एक कविता
हिंदी की युवा कविता के सम्मानित कवि हैं बद्रीनारायण... कविताओं में लोक रंग की कूची चलती है उनके यहां... उनकी नई कविता है बच्चे का गीत... पिता पर मार्मिक कविता है... कुमार जी की किवाड़ चिपकाते समय ही हमने बताया था कि पिता को लेकर बहुत भावुक हो जाते हैं हम... जब से पिता नहीं रहे वह मेरे भीतर पहले से ज़्यादा रहने लगे हैं...
बद्रीनारायण की यह कविता पढि़ये...
।। बच्चे का गीत ।।
काठ का घोड़ा लाने गए
पिता नहीं आए
सोने की चिडि़या लाने गए
पिता नहीं आए
नीले सपने लाने गए
पिता नहीं आए
दादी की पुतली और बाबा के ढांढस
मेरे पिता अब तक नहीं आए
कत्थई गिलहरी लाने गए
पिता नहीं आए
मां की फहराती साड़ी के सबुज रंग मेरे पिता
अब तक नहीं आए
हरा तोता बनकर गए पिता नहीं आए
सपने का मृग लाने गए पिता नहीं आए
पिता आए तो उनकी लाश आई
तृतीय श्रेणी के डिब्बे में
शौचालय के पास की थोड़ी जगह में
लिटाई हुई
(हंस, जून 2008 से साभार)
Thursday, May 29, 2008
ऋतुओं में बसंत हूं मैं, रंगों में गुलाब...
सच बताना
ऋतुओं में बसंत हूं मैं
रंगों में गुलाब
आसमान में सुबह का सितारा
हवा में सुगंध
धरती पर ठंडी बर्फ हूं
घर में छोटा सा मंदिर
मंदिर में लौ हूं मद्धम
नींद में कुनमुनाता सपना हूं
उनींद में बेचैन मुस्कान
प्यास में एक बूंद
भूख में तृप्ति
राह चलते उदास पल में
सिर पर झरता कनेर का फूल हूं
कितना अच्छा लगा था मुझे
जब तुमने कहा था ये सब
बदन की लताएं बना
इंद्रधनुष पर टांग दिया था हिंडोला मैंने
पींगों में हुलस देख मेरी
गुदगुदाया था तुम्हारा भी मन
फिर क्यों हो गया ऐसा?
सच बताना
कल नुक्कड़ से गुज़रते वक्त
लुढ़कती आई थी जो गाली मेरे पीछे
उसमें तुम्हारी आवाज का ओज क्यों था?
Monday, May 26, 2008
पिछले जनम में हम मारीना त्स्वेतायेवा थे
काश मैं तुम्हारे साथ होती
काश मैं तुम्हारे साथ रहती
एक छोटे से कस्बे में
जहां होती गोधूलि में डूबी शामें
और गूंजती शाश्वत घंटियों की टन टन
और एक छोटी सी गंवई सराय में
ऊंची आवाज से गूंजते घण्टे
किसी पुरानी घड़ी के
समय की बूंदों की तरह टप टप
और कभी किसी शाम किसी दुमंजिले पर
बज उठती बांसुरी
और वादक स्वंय बैठा होता खिड़की में
और खिड़की के छज्जे से झांकते बड़े बड़े ट्यूलिप
कमरे के बीचोबीच एक बड़ी अंगीठी होती
जिसके हर पत्थर पर एक डिजाइन बना होता
एक गुलाब एक दिल एक जहाज
और एकमात्र खिड़की से झांकती
बर्फ बर्फ बर्फ
तुम उसी मुद्रा में लेटे हुए होते जिसे मैं प्यार करती हूं : अलसाये
खोये खोये और लापरवाह
और बस कभी कभी गूंज जाती तीखी
माचिस की रगड़
सिगरेट जलती और छोटी होती जाती
और काफी देर बाद उसके सिरे पर कांपती
राख- - - छोटा सा मटमैला स्तंभ
तुम इतने आलसी हो कि उसे झाड़ते भी नहीं- - -
और सारी सिगरेट उछालकर फेंक देते आग में
Saturday, May 24, 2008
जिंदगी एक रेलवे स्टेशन है, जल्दी ही चली जाऊंगी... कहां, यह नहीं बताऊंगी
मैं लिखती रही
मैं लिखती रही स्लेट पर
लिखती रही पंखों पर
समुद्र और नदी की रेत पर
बर्फ पर कांच पर
लिखती रही सौ-सौ बरस पुराने डण्ठलों पर
सारी दुनिया को बताने के लिए
कि तू मुझे प्रिय है, प्रिय है, प्रिय है
लिख डाला इंद्रधनुष से पूरे आकाश पर
कितनी इच्छा थी मेरी कि हर कोई
सदियों तक खिलता रहे मेरे साथ
फिर मेज पर सिर टिकाए
एक के बाद एक
काटती रही
सबके सब नाम
पर तू जो बंध गया है बिके हुए के हाथ
क्यों डंक मारता है मेरे हृदय में
जिसे मैंने बेचा नहीं वह अंगूठी
आज भी रखी है मेज पर .
Tuesday, May 20, 2008
इन किवाड़ों को देख मुझे पिता की याद आती है
उनके जाने के कुछ समय बाद हमने यह कविता पढ़ी थी... कुमार अंबुज जी की है... कवि के रूप में हमें बहुत पसंद हैं... पर इस कविता से एक व्यक्तिगत जुड़ाव हो गया है... क्योंकि जब भी मैं अपने कमरे का किवाड़ देखती हूं... उसका डोलना देखती हूं... तो मुझे पिता याद आ जाते हैं... आंखें भर जाती हैं....
(हमारी पिछली पोस्ट पर आप सब लोगों ने इतनी प्रेरक और उत्साहबर्धक टिप्पणी की है कि हम सच में भावुक हो गए हैं... ऐसा लगा... जैसे ब्लॉग के इसी परिवार का हिस्सा हैं हम... हम दिल से आप सबके आभारी हैं कि आपने मुझ जैसी नाचीज़ को पढ़ा... बरदास्त किया...)
Saturday, May 17, 2008
मैं आ गई हूं... मेरा स्वागत कीजिए...
अब आप पूछेंगे कि मैं कौन हूं... तो इस प्रश्न का उत्तर तो आपको इस ब्लॉग पर आते आते ही मिलेगा... लेकिन एक बात आपको बता दूं कि विगत छह मास से ब्लॉग की दुनिया के चक्कर काट रही हूं... जहां कुछ अच्छा लग जाता है... तो टिपिया भी देती हूं... उसे बच्चों की तरह अपनी डायरी में नोट भी कर लेती हूं...
काफी समय से सोच रखा था... एक ब्लॉग हो सपनों का... आरकुट पर भी लोग पूछते ही रहते थे... कई बेसब्रे तो ईमेल पर ईमेल करते थे... कब बना रही हो अपना ब्लॉग... वादा किया था मैंने.... अपनी कविताएं अपने स्वयं के ब्लॉग पर पढाऊंगी... पर असली दुनिया के झंझट ऐसा करने का पूरा अवकाश नहीं देते थे... कुछ ट्रेवलिंग...कुछ एग्जाम्स... पर अब तो शुरु हो गए हैं जी हम भी। धडाधड महाराज की तरह ...
वक्रतुण्ड महाकाय से लेकर एकदंत गजानन तक सारे नाम दर्ज कर लिए हैं हमने... आबरा का डाबरा से लेकर ओउम फट फट भी.... अब मुझे यहां से हटाने के लिए कोई आल तू जलाल तू.. आई बला को टाल तू... पढे तो भी अपन हटने वाली नहीं हैं... हां भय्यू... तो पढिए पहली पोस्ट में हमारी पहली कविता...
खूब लिखते हैं हम... और आगे भी लिखते रहेंगे... इसीलिए तो आए हैं भई हम यहां पर.... ..... ...