दो-तीन बार कह चुकी हूं.... कि अपनी कविता दूंगी... पर डर लगता है... पता नहीं कैसे रियेक्ट करेंगे आप लोग... मारीना की इतनी अच्छी कविताएं देने के बाद बुडबक टाइप की अपनी कविता पढ़ाते संकोच से घुली जा रही हूं... ये कविता पिछले साल लिखी थी... थोडा थोडा बदलती रही... कैसी है... हमें नहीं पता... हमने लिख दी है... आप पढिये और टिपियाइये... जो भी कमी बेसी हो... 'गीता' पर हाथ रखने को तो कह नहीं सकती... ब्लॉग जगत का माहौल बडा खराब चल रहा है... फिर भी जो टिपियाना... सच सच टिपियाना... पूरे ब्लॉग दुनिया में की गई हमारी टिप्पाणियों की कसम है आपको... तो सीरियस हो जाइए और ... झेलिए हमारी स्वरचित कविता...
सच बताना
ऋतुओं में बसंत हूं मैं
रंगों में गुलाब
आसमान में सुबह का सितारा
हवा में सुगंध
धरती पर ठंडी बर्फ हूं
घर में छोटा सा मंदिर
मंदिर में लौ हूं मद्धम
नींद में कुनमुनाता सपना हूं
उनींद में बेचैन मुस्कान
प्यास में एक बूंद
भूख में तृप्ति
राह चलते उदास पल में
सिर पर झरता कनेर का फूल हूं
कितना अच्छा लगा था मुझे
जब तुमने कहा था ये सब
बदन की लताएं बना
इंद्रधनुष पर टांग दिया था हिंडोला मैंने
पींगों में हुलस देख मेरी
गुदगुदाया था तुम्हारा भी मन
फिर क्यों हो गया ऐसा?
सच बताना
कल नुक्कड़ से गुज़रते वक्त
लुढ़कती आई थी जो गाली मेरे पीछे
उसमें तुम्हारी आवाज का ओज क्यों था?
Thursday, May 29, 2008
Monday, May 26, 2008
पिछले जनम में हम मारीना त्स्वेतायेवा थे
ये कविता है तो मारीना त्स्वेतायेवा की... लेकिन कई बार हमारे अनुभव के आकाश में चमकता हुआ चांद हमसे बताता है... कि नंदिनी, किसी युग में तुम पेरिस में रहती थी... और अपने दिल में आई चीजों को किसी और भाषा में कहती थी... बचपने की बात लगेगी... पर सच कहूं, हमको ऐसा लगता है कई बार... के हम ही थे पिछले जन्म की मारीना त्स्वेतायेवा... और उनके नाम से हमने ही लिखी थी ये कविता... कुछ लोगों का लिखा कितने भीतर तक गहराई में अंतस में बस जाता है... कि उसका स्वंय से एकाकार हो जाता है... लीजिए... हम तो समीक्षक भी हो गए... लगे समीक्षा करने... गलदअश्रु... अभी तो अपने बचपने से ही निपटना है... तब तक आप ये कविता पढिये... मारीना की है अर्थात मेरी है... मेरी है अर्थात मारीना की है... अगली बार हम अपनी कविता डालेंगे गौरव जी.... वादा है... और प्यार की फिलासफी में क्यों जाना... जो प्यार करते हैं वो फिलासफी नहीं करते... जो फिलासफी करते हैं कभी प्यार नहीं कर पाते... मैंने तो जीवन में प्यार चुना है... च्वाइस तो हर किसी के सामने है... गौरव जी, नाराज मत होना... हमारे कमेंट से बहुतै लोग नाराज हैं... अब हम ये तो लिख दिए ईमानदारी से... पर कुछ लोग ये टिप्पणी करने आएंगे ..कि काहें चोंहचिया रही हो... इस जनम में भी मारीना ही हो... वैसे अभी आपके बड़े सवाल का जवाब नहीं सूझा... तो सलीम-जावेद स्टाइल में प्यार की फिलासफी वाला डायलाग चेंप दिया... पढिए हमारी एक और पसंदीदा कविता... जो मारीना के बारे और जानना चाहते हैं वो यहां पढ़ें
काश मैं तुम्हारे साथ होती
काश मैं तुम्हारे साथ रहती
एक छोटे से कस्बे में
जहां होती गोधूलि में डूबी शामें
और गूंजती शाश्वत घंटियों की टन टन
और एक छोटी सी गंवई सराय में
ऊंची आवाज से गूंजते घण्टे
किसी पुरानी घड़ी के
समय की बूंदों की तरह टप टप
और कभी किसी शाम किसी दुमंजिले पर
बज उठती बांसुरी
और वादक स्वंय बैठा होता खिड़की में
और खिड़की के छज्जे से झांकते बड़े बड़े ट्यूलिप
कमरे के बीचोबीच एक बड़ी अंगीठी होती
जिसके हर पत्थर पर एक डिजाइन बना होता
एक गुलाब एक दिल एक जहाज
और एकमात्र खिड़की से झांकती
बर्फ बर्फ बर्फ
तुम उसी मुद्रा में लेटे हुए होते जिसे मैं प्यार करती हूं : अलसाये
खोये खोये और लापरवाह
और बस कभी कभी गूंज जाती तीखी
माचिस की रगड़
सिगरेट जलती और छोटी होती जाती
और काफी देर बाद उसके सिरे पर कांपती
राख- - - छोटा सा मटमैला स्तंभ
तुम इतने आलसी हो कि उसे झाड़ते भी नहीं- - -
और सारी सिगरेट उछालकर फेंक देते आग में
काश मैं तुम्हारे साथ होती
काश मैं तुम्हारे साथ रहती
एक छोटे से कस्बे में
जहां होती गोधूलि में डूबी शामें
और गूंजती शाश्वत घंटियों की टन टन
और एक छोटी सी गंवई सराय में
ऊंची आवाज से गूंजते घण्टे
किसी पुरानी घड़ी के
समय की बूंदों की तरह टप टप
और कभी किसी शाम किसी दुमंजिले पर
बज उठती बांसुरी
और वादक स्वंय बैठा होता खिड़की में
और खिड़की के छज्जे से झांकते बड़े बड़े ट्यूलिप
कमरे के बीचोबीच एक बड़ी अंगीठी होती
जिसके हर पत्थर पर एक डिजाइन बना होता
एक गुलाब एक दिल एक जहाज
और एकमात्र खिड़की से झांकती
बर्फ बर्फ बर्फ
तुम उसी मुद्रा में लेटे हुए होते जिसे मैं प्यार करती हूं : अलसाये
खोये खोये और लापरवाह
और बस कभी कभी गूंज जाती तीखी
माचिस की रगड़
सिगरेट जलती और छोटी होती जाती
और काफी देर बाद उसके सिरे पर कांपती
राख- - - छोटा सा मटमैला स्तंभ
तुम इतने आलसी हो कि उसे झाड़ते भी नहीं- - -
और सारी सिगरेट उछालकर फेंक देते आग में
Saturday, May 24, 2008
जिंदगी एक रेलवे स्टेशन है, जल्दी ही चली जाऊंगी... कहां, यह नहीं बताऊंगी
मारीना त्स्वेतायेवा मेरी पसंदीदा कवयित्री हैं... विदेशी साहित्य मैंने कम पढ़ा है और जो भी पढ़ा है... हिंदी में पढ़ा है... शब्द तो शब्द हैं... उनमें क्या स्वदेशी क्या विदेशी... मनुष्य के भीतर के भाव तो वही होते हैं... प्रेम और दर्द का अनुवाद किसी भी भाषा में कर लो... प्रेम और दर्द ही रहेंगे... मारीना का जीवन एक स्त्री का जीवन लगा मुझे हमेशा... हमारी एक परंपरागत स्त्री... जिसने प्रेम में धोखा पाया... जिसने अनमने ढंग से देह को दिया... दी जाती हूं मैं... संगीत, प्रकृति और एकांत प्रिय... और स्वामित्व बोध- बच्चों कॉपियों और स्मृतियों तक सीमित... बहुत कम होता है एक स्त्री के जीवन में स्वामित्व बोध के लिए... कम उम्र में दुनिया छोड़ जाने वाली यह कवि आज भी कविता लिखती हर स्त्री के दिल के बीच धड़कती रहती है... भरी जवानी में बुढ़ापे का अहसास करने वाली इस कवि ने हमेशा कहा... 'जिंदगी एक रेलवे स्टेशन है, जल्दी ही चली जाऊंगी... कहां यह नहीं बताऊंगी... मेरे जाने के बाद मुझे खोजोगे और और तुम्हारी रातें नींद से ज्यादा लंबी हो जाएंगी...' यह एक कविता प्रस्तुत है...
मैं लिखती रही
मैं लिखती रही स्लेट पर
लिखती रही पंखों पर
समुद्र और नदी की रेत पर
बर्फ पर कांच पर
लिखती रही सौ-सौ बरस पुराने डण्ठलों पर
सारी दुनिया को बताने के लिए
कि तू मुझे प्रिय है, प्रिय है, प्रिय है
लिख डाला इंद्रधनुष से पूरे आकाश पर
कितनी इच्छा थी मेरी कि हर कोई
सदियों तक खिलता रहे मेरे साथ
फिर मेज पर सिर टिकाए
एक के बाद एक
काटती रही
सबके सब नाम
पर तू जो बंध गया है बिके हुए के हाथ
क्यों डंक मारता है मेरे हृदय में
जिसे मैंने बेचा नहीं वह अंगूठी
आज भी रखी है मेज पर .
मैं लिखती रही
मैं लिखती रही स्लेट पर
लिखती रही पंखों पर
समुद्र और नदी की रेत पर
बर्फ पर कांच पर
लिखती रही सौ-सौ बरस पुराने डण्ठलों पर
सारी दुनिया को बताने के लिए
कि तू मुझे प्रिय है, प्रिय है, प्रिय है
लिख डाला इंद्रधनुष से पूरे आकाश पर
कितनी इच्छा थी मेरी कि हर कोई
सदियों तक खिलता रहे मेरे साथ
फिर मेज पर सिर टिकाए
एक के बाद एक
काटती रही
सबके सब नाम
पर तू जो बंध गया है बिके हुए के हाथ
क्यों डंक मारता है मेरे हृदय में
जिसे मैंने बेचा नहीं वह अंगूठी
आज भी रखी है मेज पर .
Tuesday, May 20, 2008
इन किवाड़ों को देख मुझे पिता की याद आती है
घर के किवाड़ की मजबूती पर बहुत ध्यान दिया जाता है... किवाड़ तोड़ दो... तो घर में चल रहा सब कुछ दिखने लग जाता है... मेरे घर का किवाड़ मेरे पिता थे... उनके साये में हम बहुत सुरक्षित रहते थे... हमें डर नहीं लगता था... और हमने कभी सोचा भी नहीं था कि जब पिता नहीं होंगे... तो हमारा घर कैसा होगा... एक दिन पिता नहीं रहे... हमारे घर से न सिर्फ किवाड़ उखड़ गया... छत भी चली गई... हवा के किसी झोंके के साथ...
उनके जाने के कुछ समय बाद हमने यह कविता पढ़ी थी... कुमार अंबुज जी की है... कवि के रूप में हमें बहुत पसंद हैं... पर इस कविता से एक व्यक्तिगत जुड़ाव हो गया है... क्योंकि जब भी मैं अपने कमरे का किवाड़ देखती हूं... उसका डोलना देखती हूं... तो मुझे पिता याद आ जाते हैं... आंखें भर जाती हैं....
(हमारी पिछली पोस्ट पर आप सब लोगों ने इतनी प्रेरक और उत्साहबर्धक टिप्पणी की है कि हम सच में भावुक हो गए हैं... ऐसा लगा... जैसे ब्लॉग के इसी परिवार का हिस्सा हैं हम... हम दिल से आप सबके आभारी हैं कि आपने मुझ जैसी नाचीज़ को पढ़ा... बरदास्त किया...)
उनके जाने के कुछ समय बाद हमने यह कविता पढ़ी थी... कुमार अंबुज जी की है... कवि के रूप में हमें बहुत पसंद हैं... पर इस कविता से एक व्यक्तिगत जुड़ाव हो गया है... क्योंकि जब भी मैं अपने कमरे का किवाड़ देखती हूं... उसका डोलना देखती हूं... तो मुझे पिता याद आ जाते हैं... आंखें भर जाती हैं....
किवाड़
ये सिर्फ़ किवाड़ नहीं हैं
जब ये हिलते हैं
माँ हिल जाती है
और चौकस आँखों
देखती है -'क्या हुआ?'
मोटी साँकल की
चार कड़ियों में
एक पूरी उमर और स्मृतियाँ
बँधी हुई हैं
जब साँकल बजती है
बहुत कुछ बज जाता है घर में
इन किवाड़ों पर
चंदा सूरज
और नाग देवता बने हैं
एक विश्वास और सुरक्षा
खुदी हुई है इन पर
इन्हें देखकर हमें
पिता की याद आती है
भैया जब इन्हें
बदलवाने को कहते हैं
माँ दहल जाती है
कई रातों तक पिता
उसके सपनों में आते हैं
ये पुराने हैं
लेकिन कमज़ोर नहीं
इनके दोलन में
एक वज़नदारी है
ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया हमारी तरफ़ खुलती है
जब ये नहीं होंगे
घर
घर नहीं रहेगा।
(हमारी पिछली पोस्ट पर आप सब लोगों ने इतनी प्रेरक और उत्साहबर्धक टिप्पणी की है कि हम सच में भावुक हो गए हैं... ऐसा लगा... जैसे ब्लॉग के इसी परिवार का हिस्सा हैं हम... हम दिल से आप सबके आभारी हैं कि आपने मुझ जैसी नाचीज़ को पढ़ा... बरदास्त किया...)
Saturday, May 17, 2008
मैं आ गई हूं... मेरा स्वागत कीजिए...
ब्लॉग की दुनिया को हाय हैलो सलाम नमस्ते आदाब अर्ज सतश्री अकाल।
अब आप पूछेंगे कि मैं कौन हूं... तो इस प्रश्न का उत्तर तो आपको इस ब्लॉग पर आते आते ही मिलेगा... लेकिन एक बात आपको बता दूं कि विगत छह मास से ब्लॉग की दुनिया के चक्कर काट रही हूं... जहां कुछ अच्छा लग जाता है... तो टिपिया भी देती हूं... उसे बच्चों की तरह अपनी डायरी में नोट भी कर लेती हूं...
काफी समय से सोच रखा था... एक ब्लॉग हो सपनों का... आरकुट पर भी लोग पूछते ही रहते थे... कई बेसब्रे तो ईमेल पर ईमेल करते थे... कब बना रही हो अपना ब्लॉग... वादा किया था मैंने.... अपनी कविताएं अपने स्वयं के ब्लॉग पर पढाऊंगी... पर असली दुनिया के झंझट ऐसा करने का पूरा अवकाश नहीं देते थे... कुछ ट्रेवलिंग...कुछ एग्जाम्स... पर अब तो शुरु हो गए हैं जी हम भी। धडाधड महाराज की तरह ...
वक्रतुण्ड महाकाय से लेकर एकदंत गजानन तक सारे नाम दर्ज कर लिए हैं हमने... आबरा का डाबरा से लेकर ओउम फट फट भी.... अब मुझे यहां से हटाने के लिए कोई आल तू जलाल तू.. आई बला को टाल तू... पढे तो भी अपन हटने वाली नहीं हैं... हां भय्यू... तो पढिए पहली पोस्ट में हमारी पहली कविता...
खूब लिखते हैं हम... और आगे भी लिखते रहेंगे... इसीलिए तो आए हैं भई हम यहां पर.... ..... ...
अब आप पूछेंगे कि मैं कौन हूं... तो इस प्रश्न का उत्तर तो आपको इस ब्लॉग पर आते आते ही मिलेगा... लेकिन एक बात आपको बता दूं कि विगत छह मास से ब्लॉग की दुनिया के चक्कर काट रही हूं... जहां कुछ अच्छा लग जाता है... तो टिपिया भी देती हूं... उसे बच्चों की तरह अपनी डायरी में नोट भी कर लेती हूं...
काफी समय से सोच रखा था... एक ब्लॉग हो सपनों का... आरकुट पर भी लोग पूछते ही रहते थे... कई बेसब्रे तो ईमेल पर ईमेल करते थे... कब बना रही हो अपना ब्लॉग... वादा किया था मैंने.... अपनी कविताएं अपने स्वयं के ब्लॉग पर पढाऊंगी... पर असली दुनिया के झंझट ऐसा करने का पूरा अवकाश नहीं देते थे... कुछ ट्रेवलिंग...कुछ एग्जाम्स... पर अब तो शुरु हो गए हैं जी हम भी। धडाधड महाराज की तरह ...
वक्रतुण्ड महाकाय से लेकर एकदंत गजानन तक सारे नाम दर्ज कर लिए हैं हमने... आबरा का डाबरा से लेकर ओउम फट फट भी.... अब मुझे यहां से हटाने के लिए कोई आल तू जलाल तू.. आई बला को टाल तू... पढे तो भी अपन हटने वाली नहीं हैं... हां भय्यू... तो पढिए पहली पोस्ट में हमारी पहली कविता...
खूब लिखते हैं हम... और आगे भी लिखते रहेंगे... इसीलिए तो आए हैं भई हम यहां पर.... ..... ...
कौन हूं मैं
मैं हरी पत्ती
जिस पर बारिश की बूंदें अभी अभी गिरी हैं
मैं दूब की नोंक
जो अभी अभी हवा से लड़ी है
मैं एक बहती हुई नदी
जिसकी कमर पर कोई नगरी बसी है
मैं एक स्त्री
जिसमें रहती हैं
हरी पत्तियां
गिन न सकोगे इतनी दूब
और संसार की सारी नदियां
अब देखिए आप.... इस कविता से मेरा परिचय मिल जाता है... न भी मिले, तो भी टिपियाने में कोई कोताही हमसे बरदास्त नहीं होगी... हां.. कहे देते हैं... जमके टिपियाइये...
आज तो आप यही पढिए... इंतजार कीजिए कल तक...
Subscribe to:
Posts (Atom)