दो-तीन बार कह चुकी हूं.... कि अपनी कविता दूंगी... पर डर लगता है... पता नहीं कैसे रियेक्ट करेंगे आप लोग... मारीना की इतनी अच्छी कविताएं देने के बाद बुडबक टाइप की अपनी कविता पढ़ाते संकोच से घुली जा रही हूं... ये कविता पिछले साल लिखी थी... थोडा थोडा बदलती रही... कैसी है... हमें नहीं पता... हमने लिख दी है... आप पढिये और टिपियाइये... जो भी कमी बेसी हो... 'गीता' पर हाथ रखने को तो कह नहीं सकती... ब्लॉग जगत का माहौल बडा खराब चल रहा है... फिर भी जो टिपियाना... सच सच टिपियाना... पूरे ब्लॉग दुनिया में की गई हमारी टिप्पाणियों की कसम है आपको... तो सीरियस हो जाइए और ... झेलिए हमारी स्वरचित कविता...
सच बताना
ऋतुओं में बसंत हूं मैं
रंगों में गुलाब
आसमान में सुबह का सितारा
हवा में सुगंध
धरती पर ठंडी बर्फ हूं
घर में छोटा सा मंदिर
मंदिर में लौ हूं मद्धम
नींद में कुनमुनाता सपना हूं
उनींद में बेचैन मुस्कान
प्यास में एक बूंद
भूख में तृप्ति
राह चलते उदास पल में
सिर पर झरता कनेर का फूल हूं
कितना अच्छा लगा था मुझे
जब तुमने कहा था ये सब
बदन की लताएं बना
इंद्रधनुष पर टांग दिया था हिंडोला मैंने
पींगों में हुलस देख मेरी
गुदगुदाया था तुम्हारा भी मन
फिर क्यों हो गया ऐसा?
सच बताना
कल नुक्कड़ से गुज़रते वक्त
लुढ़कती आई थी जो गाली मेरे पीछे
उसमें तुम्हारी आवाज का ओज क्यों था?
Thursday, May 29, 2008
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20 comments:
पढ़ लिया.
इतना बेहतरीन लिखकर डर रही हैं? फिर तो हम तो कुछ पोस्ट ही नहीं कर पायें जीवन भर. खुद की खुद ही बांचे और बाद में खुदा को बंचवायें. :)
लिखिये और, शुभकामनाऐं.
"सच बताना
कल नुक्कड़ से गुज़रते वक्त
लुढ़कती आई थी जो गाली मेरे पीछे
उसमें तुम्हारी आवाज का ओज क्यों था?"
पूरी कविता में यही कुछ बात है, जिसे पढते हुए लगता है कि पहली बार पढ रहे हैं. अन्यथा न लें आपने कहा है, "सच सच टिपियाना". इस लिये ही ऎसा कह पाया.
बहुत बढ़िया है. बधाई. अब अपनी ही लिखी कुछ और हो जाएं तो क्या बात है.
एक अच्छी रचना फिर भी डर। सच्ची रचना कहने के लिए काहे का डर। बाद की लाइने काफी पसंद आई। आप लिखती रहो और पेश करती रहो। साथ में एक आथ रचना अन्ना अख्तमोवा की भी हो जाऐ मरीना की रचनाओ के साथ।
अंतिम पंक्तियाँ अच्छी लगी ...
ठीक है। शुरुआत इसी तरह होती है। तुम्हारी प्रिय कवि मारीना त्स्वेतायेवा ने भी शायद इसी तरह शुरुआत की होगी।
लुढ़कती आई थी जो गाली मेरे पीछे
उसमें तुम्हारी आवाज का ओज क्यों था?
बहुत ही सुंदर रचना.. बिना डरे निसंकोच लिखे.. आप अच्छा लिखती है..
अरे लिखने में डरना क्या है.. वैसे भी ब्लॉग लिखने वाले अच्छे लोग हैं, कभी बुराई नहीं करते.
बेकार का डर किया आपने.
इस बेकार के काम की सज़ा मिलेगी.
बराबर मिलेगी.
जल्द से जल्द ४-६ कवितायें और ठेली जाएं.
हाँ फिलहाल सिर्फ़ ४-६ ही.
कविता पसँद आयी -
लिखती रहीये !
बधाई
-- लावण्या
पहले तो आपको इतनी अच्छी कविता लिखने के लिए बहुत-2 बधाई। दूसरा क्या आपको ख़ुद पर भरोसा नहीं है। अगर है, तो आगे से ये कभी मत लिखना की (झेलिए हमारी कविता)। आप इतना अच्छा लिखती हैं। सकारात्मक नज़रिए और आत्मविश्वास से भरी आपकी कविता हम जल्दी पढ़ना चाहते हैं।
आप मंदिर में मद्धम लौ नहीं, पूरी प्रचंड लौ हैं।
शुभकामनाओं सहित
बहुत अच्छी लिखी हैं. अन्तिम पंक्तियाँ बहुत प्रभावी हैं. लिखती रहा करिये.. - अखिल
अच्छी कविता। लगी रहिए। इतनी हौसला अफजाई तो मिल ही रही है तो साथ में हमारी भी शाबाशी।
डर? ब्लॉग्स पर इतना कूड़ा परोसा जा रहा है और आपको डर लग रहा है? कविता बहुत सुंदर है…
मगर आपकी कविता का अन्त मेरी एक अधूरी कविता का मध्य है। आह! बदलना पड़ेगा उसे।
शुभम।
हम तो कविता के नाम पर कुछ भी नहीं लिख पाते सो हम तो यहीं कहेंगे बहुत ही बढ़िया लिखा है.
nandini aapne marina ko jitni gahrai tak khud me mahsus kiya, mujhe nahin lagta shayad koi aur aisa kar pata.aapne likha haiki pichhle janam me marina thi,kavitaon ka aisa chayan is baat ko satya siddh karta hai.aasha hai ki aap aise hi hamen marina se vakif karaati rahengi.
Nandini jee, aapkee swarachit kavitaa padhee,apnee bhaavnaaon ko, apne ehsaasaat ko, apnee samvednaa ko apnee kavitaa me bakhoobee prastut kiyaa hai,iske liye nishchay hee aap prashansneey hain. Saadhuwaad! Koshish jaaree rakiye,kyonki-
''Lahron se dar kar naukaa paar naheen hotee,
Koshish karne waalon kee kabhee haar nahee hotee''.
-----------TARUN MOHAMMED
Nandini jee, keep it up!
ओ मेरे वसंत के वर्ष
तुझसे मुझे शिकायत नहीं,
मेरे वसंत के वर्ष,
जो बीत गए प्रेम के व्यर्थ सपनों में-
तुझसे मुझे नहीं है शिकायत,
मादक बांसुरी-से-संगीतमय
ओ रातों के रहस्य।
मुझे तुमसे नहीं है शिकायत
प्याले लिए पंखों का मुकुट पहने जंगल की
घुमावदार पगडंडियों पर मिलने वाले
ओ धोखेबाज साथियों,
युवा देशद्रोहियो-
नहीं है शिकायत मुझे तुमसे
और मैं इस खेल से, चिंता भरा।
किंतु कहां गए वे, भावुक पल,
जवान उम्मीदों और
हृदय की शांति के पल
कहां है प्रेरणा के आंसू
पहले की सी उष्मा कहां गई,
मेरे वसंत के वर्ष
फिर आना.....
रुसी के महान कवि अलेक्जेंडर पूश्किन की एक प्रेम कविता
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