उनके जाने के कुछ समय बाद हमने यह कविता पढ़ी थी... कुमार अंबुज जी की है... कवि के रूप में हमें बहुत पसंद हैं... पर इस कविता से एक व्यक्तिगत जुड़ाव हो गया है... क्योंकि जब भी मैं अपने कमरे का किवाड़ देखती हूं... उसका डोलना देखती हूं... तो मुझे पिता याद आ जाते हैं... आंखें भर जाती हैं....
किवाड़
ये सिर्फ़ किवाड़ नहीं हैं
जब ये हिलते हैं
माँ हिल जाती है
और चौकस आँखों
देखती है -'क्या हुआ?'
मोटी साँकल की
चार कड़ियों में
एक पूरी उमर और स्मृतियाँ
बँधी हुई हैं
जब साँकल बजती है
बहुत कुछ बज जाता है घर में
इन किवाड़ों पर
चंदा सूरज
और नाग देवता बने हैं
एक विश्वास और सुरक्षा
खुदी हुई है इन पर
इन्हें देखकर हमें
पिता की याद आती है
भैया जब इन्हें
बदलवाने को कहते हैं
माँ दहल जाती है
कई रातों तक पिता
उसके सपनों में आते हैं
ये पुराने हैं
लेकिन कमज़ोर नहीं
इनके दोलन में
एक वज़नदारी है
ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया हमारी तरफ़ खुलती है
जब ये नहीं होंगे
घर
घर नहीं रहेगा।
(हमारी पिछली पोस्ट पर आप सब लोगों ने इतनी प्रेरक और उत्साहबर्धक टिप्पणी की है कि हम सच में भावुक हो गए हैं... ऐसा लगा... जैसे ब्लॉग के इसी परिवार का हिस्सा हैं हम... हम दिल से आप सबके आभारी हैं कि आपने मुझ जैसी नाचीज़ को पढ़ा... बरदास्त किया...)
16 comments:
नंदिनी जी, क्या बात है। आपके दिल की बातें पड़ कर मुझे दुख भी हुआ और खुशी भी हुई। दुख इस बात का कई ऐसी औलादें हैं, जिनके मां-बाप होते हुए भी उनके लिए नहीं के बराबर है और खुशी इस बात की है कि उनके इस दुनिया से जाने के बाद भी वो हैं और सदा रहेंगे। ख़ैर अब आप ख़ुद में एक किवाड़ है और आपकी इजाजत के बिना इस किवाड़ को कोई नहीं खोल सकता। मुझे अच्छा लगा यह जानकर की आप कुमार अंबुज को पढ़ती हैं। मैं भी इनको पढ़ रहा हूं। मेरे बड़े भाई ने मुझे इनकी किताब दी है और मैंने भी यह कविता पढ़ी है और इनसे इंस्पायर होकर एक कविता लिखी है दरवाजा अगर हो सके तो पढ़कर अपना विचार मुझे भेजना। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ।
ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया हमारी तरफ़ खुलती है
जब ये नहीं होंगे
घर
घर नहीं रहेगा।
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पिता की याद से जुड़ी
सच्चे मन की सहज अभिव्यक्ति,
लेकिन कविता में यह सृजन का
संवेदनशील और सधा हुआ पड़ाव है.
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डा.चंद्रकुमार जैन
कोई तो मिला जिसे पिता की याद आती है.
यहां तो सिर्फ बेटी और मां के ही कद्रदान हैं.
स्वागत है आपका
"...ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया हमारी तरफ़ खुलती है
जब ये नहीं होंगे
घर
घर नहीं रहेगा।"
आह ! क्या बात है. बहुत कुछ कहना है .... लेकिन कैसे कहूँ ??
मन को छू गई ये कविता. शुक्रिया.
dil ko choo lene vali kavita hai...pita aise hi hote hai.
दिल को छू लेने वाली कविता है ये.. यहा हमारे साथ बाँटने के लिए आपका धन्यवाद..
बेटियां और पिता...चाहे जब, जिसके भी इन रिश्तों की बातें होती हैं, स्मृतियों से बोझिल दर्द के जाने कितने-कितने दरीचे खुलते चले जाते हैं. नंदिनी जी, यूं ही अपनी उन धरोहर-स्मृतियों को महाकाव्यात्मक स्वर देती रहीं। बधाई।
कुमार अंबुज मेरे प्रिय कवि हैं। एक कवि यही करता है कि वह अपने अनुभव को इस तरह से हमारे लिए अभिव्यक्त करता है कि वह हमारा भी हो जाता है। मुझे नहीं पता आपने उनकी कहानियां पढ़ी कि नहीं लेकिन उन्होंने पिछले कुछ समय में बेहतरीन कहानियां लिखी हैं जो पहल, वागर्थ और नया ज्ञानोदय में छपी हैं। हाल ही में वे जब इंदौर आए थे उनसे मुलाकात हुई। उनका जल्द ही ज्ञानपीठ से एक कहानी संग्रह भी आ रहा है।
बर्दाश्त करते रहेंगे, बर्दाश्त करने की चिंता न करें. लिखने की दुनिया को और-और फैलायें.
achchhi kavita..
पिता पर लिखी गई कविताओ में से एक बेहतरीन कविता. बड़ी खुशी हुई आप इस हमलोगों के साथ साझा किया
राजेश रोशन
मन भर आया .. मेरी बहन की शादी हुइ शुरुआती दिनों में ससुराल वाले प्रताडित किया करते थे ..एक भाइ के नाते मेरा मन खौल जाता ..मैनें इस बात को अपने दोस्तों के साथ शेयर किया..मेरे पिता ने कहा कि बेटा प्रत्येक घर में एक किवाड होता है जिसके पास नही होता वो टाट का पर्दा लगाता है .तुमने तो उस पर्दे को ही हटा डाला तुम तो नंगे हो गये ..बडी बात कही मेरे पिता ने ..कुछ ही दिनों में बहन के ससुराल वालों के साथ रिश्ते सामान्य हो गये ..आप के इस लेख को पढकर मेरी वो स्मृतियां ताजी हो गइ...
कुमार अंबुज जी की कविता कहीं दिल में बहुत गहरे उतर गई. बहुत आभार आपका इसे पेश करने के लिए.
आभार प्रकट करते हैं हम आप सबका... पचास पचास साल लिखने के बाद भी बड़े बड़े महारथी कहते हैं कि हम अभी लिखना सीख रहे हैं... हमें पांच दिन ही हुए हैं... पढ़ रहे हैं... देख रहे हैं... सुन रहे हैं... गुन रहे हैं... ऐसे ही सीख रहे हैं हम... छिटकते हुए शब्द हाथ में आएं तो... कोशिश तो हम कर ही रहे हैं कि लेखन का दायरा फैलाएं... आप लोग अपना प्यार बनाए रखिएगा...
आपकी दूसरी पोस्ट का बेस्रबी से इंतजार था। जब सामने आई तो दिल को छू गई और भावुक कर गई। यह सच है बडो का होना बडी हिम्मत देता है। अंबुज जी का लेखन ढूढ कर पढ्ते है यह पंसद आया।
badi thokaren ham bhi khaye hue hain,
magar pir apani chhupae hue hain,
kahan jayen kisase kahen baat dil ki,
nahin kaun apane paraye hue hain,
sukomal hriday ho na karunai unka, esi se nayan ham churaye hue hain,
na viran ho priti ki vateeka phir,
suman vedna ke khilaye hue hain.
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